Thursday, December 23, 2010

मेरा श्रंगार रस

माना के श्रंगार-रस के कवि 

मुझे भाते है,
पर मुंशी और निराला
गरीब की याद दिलाते है...
माना कि तेरी पायल की,
झंकार मुझे भाती है,
पर गरीब की तस्वीर,
घायल कर जाती है...
माना की खूबसूरत है
तेरी आंखे,
पर मुझे याद आती है
गरीब की खाली आतें....
जब भी तेरी जुल्फें,
काली घटा सी लहराती है...
मुझे गरीब की कुटिया के,
अँधेरे की याद दिलाती है,
लिखने बैठा
तेरी नागिन सी  चोटी पर,
लिख बैठा
गरीब की रोटी पर,
चाँद अब तेरे चेहरे की
नही याद दिलाता है,
वो तो गरीब की खाली थाली का
अहसास कराता है,
माना कि हमने मिल कर
कुछ इरादे किये थे,
सब भूल गया जैसे,
सरकार ने गरीब से वादे किये थे....
.......... इन्दर पल सिंह "निडर"

3 comments:

  1. बहुत सुंदर बहुत बढ़िय लिखा है जी, पा जी !

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  2. सुन्दर रचना इन्दर जी,....कम से कम ये कह सकता हूँ कि आप जाग रहे हैं देख रहे हैं...और अभी तक अंधों के कारवां में शामिल नही हुए हैं.

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